दायमी नहीं, ये बहार चंद रोज़ की है,
लुत्फ़ उठा लो, इसपे इतराना कैसा।
पलक झपकते जब ख़िज़ाँ आएगी,
तो ग़ुरूर खुद-ब-खुद छूट जाएगा।
तब थोड़ा रो लेना, पर घबराना कैसा।
सर्दी की खुश्की में धूप सेकना।
धीमी सी आँच में फुल्ले फेंकना।
खुली आँखों से हक़ीक़त तो देख ली,
अब बंद आँखों से ख़्वाब भी देखना।
बहार ने तो मुड़ कर आना ही है,
पर उसके इंतज़ार में खुद को ज़ाया ना करना।
बहार और ख़िज़ाँ

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